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रथं॒ ये च॒क्रुः सु॒वृतं॑ नरे॒ष्ठां ये धे॒नुं वि॑श्व॒जुवं॑ वि॒श्वरू॑पाम्। त आ त॑क्षन्त्वृ॒भवो॑ र॒यिं नः॒ स्वव॑सः॒ स्वप॑सः सु॒हस्ताः॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rathaṁ ye cakruḥ suvṛtaṁ nareṣṭhāṁ ye dhenuṁ viśvajuvaṁ viśvarūpām | ta ā takṣantv ṛbhavo rayiṁ naḥ svavasaḥ svapasaḥ suhastāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रथ॑म्। ये। च॒क्रुः। सु॒ऽवृत॑म्। न॒रे॒ऽस्थाम्। ये। धे॒नुम्। विश्व॒ऽजुव॑म्। वि॒श्वऽरू॑पाम्। ते। आ। त॒क्ष॒न्तु॒। ऋ॒भवः॑। र॒यिम्। नः॒। सु॒ऽअव॑सः। सु॒ऽअप॑सः। सु॒ऽहस्ताः॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:33» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (सुवृतम्) उत्तम रचित और अङ्गों वा उपाङ्गों के सहित (नरेष्ठाम्) मनुष्य जिसमें स्थित होते हैं उस (रथम्) विमान आदि वाहन को (चक्रुः) करते हैं और (ये) जो (विश्वरूपाम्) सम्पूर्ण शास्त्रज्ञानवाली और (विश्वजुवम्) सम्पूर्ण वेगों से युक्त (धेनुम्) वाणी को प्राप्त होते हैं (ते) वे (स्ववसः) सुन्दर रक्षण आदि कर्म से और (स्वपसः) उत्तम प्रकार धर्मयुक्त कर्मों से युक्त (सुहस्ताः) सुन्दर कर्मसाधक हाथोंवाले (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) धन को (आ, तक्षन्तु) रखें ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पहिले विद्या को और फिर हस्तक्रिया को ग्रहण करके उत्तम आचरणवाले होते हुए आत्मसम्बन्धी और बाहिर के विशेष ज्ञान को उत्तम प्रकार जाँच के शिल्पविद्यासम्बन्धी कार्य्यों को करते हैं, वे बुद्धिमान् होते हुए ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यगुणानाह ॥

अन्वय:

य ऋभवः सुवृतं नरेष्ठां रथं चक्रुर्ये विश्वरूपां विश्वजुवं धेनुं प्राप्नुवन्ति ते स्ववसः स्वपसः सुहस्ता नो रयिमा तक्षन्तु ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रथम्) विमानादियानम् (ये) (चक्रुः) कुर्वन्ति (सुवृतम्) सुष्ठु रचितं साङ्गोपाङ्गसहितम् (नरेष्ठाम्) नरास्तिष्ठन्ति यस्मिंस्तम् (ये) (धेनुम्) वाचम् (विश्वजुवम्) समग्रवेगाम् (विश्वरूपाम्) समग्रशास्त्रस्वरूपविदम् (ते) (आ) (तक्षन्तु) रचयन्तु (ऋभवः) मेधाविनः (रयिम्) धनम् (नः) अस्मभ्यम् (स्ववसः) शोभनमवी रक्षणादिकं कर्म येषान्ते (स्वपसः) सुष्ठु धर्म्याणि कर्म्माणि येषान्ते (सुहस्ताः) शोभनाः कर्मसाधका हस्ता येषान्ते ॥८॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः प्रथमतो विद्यां पुनर्हस्तक्रियां गृहीत्वा श्रेष्ठाचाराः सन्त आत्मीयं बाह्यञ्च विज्ञानं सुलक्षीकृत्य शिल्पकार्य्याणि कुर्वन्ति ते धीमन्तः सन्त ऐश्वर्य्यं प्राप्नुवन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे प्रथम विद्या व नंतर हस्तक्रिया ग्रहण करून श्रेष्ठाचार करतात व आत्म्यासंबंधीचे व बाह्य विज्ञानाचे परीक्षण करून शिल्पकार्य करतात ती बुद्धिमान असून ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥